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राष्ट्रवाणी बनाम आडवाणी

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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“नेहरु और गांधी की छत्रछाया से अलग एक चाय बेचने वाला भी अपनी मेहनत और लगन के बलबूते इस इस देश की सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति प्राप्त कर सकता है और भारतीय जनता पार्टी उसके लिए पाथेय है |” मोदी के भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रचार समिति के अध्यक्ष पद पर निर्वाचन से पहले तक यह बात मिथक का रूप लेने लगी थी| कारण स्पष्ट है जिसने भी इस संघटन को खड़ा करने में अपने समय, श्रम और धन का अल्पदान भी किया था वह अपने अनुदान की भारी भरकम कीमत मांगने लगा था| अब राजनीति सेवा का माध्यम नहीं रहीं| देशप्रेम तो कोई विषय ही नहीं रहा| राष्ट्रभक्त होने का अर्थ साम्प्रदायिकता समझा जाने लगा है| चीन भले ही २५० मील अंदर घुस जाए| पकिस्तान भले ही दो चार राज्यों पर चाँद तारा लहरा दे| किसी के कान पर कोई जूँ नहीं रेंगने वाली| भ्रष्टाचार शिष्टाचार का अंग समझा जाने लगा है और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा सुरसा की तरह अपना विस्तार करती जा रही है|

एक समय था जब भारतीय जनता पार्टी अपने त्रिमूर्ति ( अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ) के नाम से जानी जाती थी| देश भर के हर गली कूचे में अटल, आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान के नारे लगाये जाते थे| किसी भी विपक्षी आक्रमण को झेलने के लिए अविभाजित भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुशल निर्देशन में कमर कस कर तैयार थी और यह कहना गलत नहीं होगा की विरोधियों को मुंह की खानी पड़ती थी| भारतीय जनता पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की त्यागवादी संस्कृति को न जाने किसकी बुरी नजर लग चुकी है? घास की रोटी खा कर भी संघर्ष करने की जो अदा संघ ने सिखाई थी वह कालातीत हो चुकी है| जब से भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना; तभी से श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपनों का संगठन बीमार हो गया है| एक समय था जब लाल कृष्ण आडवाणी हमारे आदर्श हुआ करते थे| एक समय था जब मुरली मनोहर जोशी के रूप में हमें “वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः” की सूक्ति साकार दिखाई पड़ती थी| राजनाथ के तेवर को देखकर लगता था की वाह इसके जैसा वक्ता मिलना ही मुश्किल है| सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के तर्कों का सामना कर पाना किसी के बूते की बात नहीं हुआ करती थी| उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा दोनों ही उमा और चंडी के रूप में दिखाई पड़ती थी| तब कानों में स्पष्ट रूप में “त्वदीयाय कार्याय बद्धाः कटीयं” की अनुगूंज प्रतिध्वनित होती थी|

अब प्रेशर पालिटिक्स का ज़माना है| गठबंधन की राजनीति के दुर्गुण तो आने ही हैं| राजग में दबाव की राजनीति का प्रारम्भ ममता बनर्जी ने किया| भारत में दबाव की राजनीति का शुभारम्भ गाँधी ने किया| अच्छे खासे आंदोलन को बिना किसी दबाव के वापस ले लेना, किसी की नियुक्ति पर कैकेयी की तरह कोप भवन में प्रवेश कर जाना, यह दबाव की राजनीति नहीं तो और क्या है?

मोदी की नियुक्ति ने आडवाणी के भावनात्मक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला| उन्होंने संगठन सहित अपने  प्रत्येक दायित्व से त्याग पत्र दे दिया| कभी कभी जनता की सहानूभूति लेने के लिए जनता की नजरों में स्वयं को पापी भी घोषित करना पड़ता है| यह राजनीति का अनिवार्य अंग है| यदि ऐसा है तो आडवाणी दोषमुक्त हो जाते हैं किन्तु गोवा न जाना और नियुक्ति के तत्काल पश्चात इस्तीफ़ा दे देना एक तरह की परिगणित (calculated) राजनैतिक चातुरी ही है| आडवाणी इससे दोषमुक्त नहीं हो सकते| गुजरात में मोदी ने जो कुछ भी किया उससे उनका कद बढ़ा| उनके इस बढते कद से उनके विरोधी भयभीत थे, विपक्षी पार्टियां भयभीत थी, आज उनके इस बढते कद से भाजपा भयभीत है|

मोदी ने सत्ता संभालते ही जितना विरोध और जितनी शत्रुता झेली है, उतनी किसी राजनीतिज्ञ ने नहीं झेली| प्रदेश की निर्वाचित सरकार को मौत का सौदागर कहा गया| नरेंद्र मोदी को लक्ष्य कर पूरे गुजरात को गालियाँ दी गयी, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को गालियाँ दी गयीं| मोदी ने कुछ भी नहीं कहा| मोदी के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय जगत में घृणा का वातावरण तैयार किया गया, मोदी ने एक शब्द नहीं कहा| मोदी के विरुद्ध प्रकट षड्यंत्र रचे गए और मोदी अपनों के भी दिए गए घाव को सहते रहें| परिस्थितियां ही मनुष्य को प्रचंड बनाती हैं और मोदी पर यह जुमला पूरी तरह से फिट बैठता है| आज आडवाणी ने जो कुछ भी किया है वह उन्हें उनकी पितामह की छवि से च्युत करने वाली है|

कारण स्पष्ट है, मोदी मुसलमान की नहीं हिन्दुस्तान की राजनीति करते हैं| नीतिश कुमार को मोदी विरोध की भारी कीमत चुकानी पड़ी है| कहीं ऐसा न हो की भारतीय जनता पार्टी को भी मोदी विरोध की कीमत चुकानी पड़े? आडवाणी ने मोदी को एक मात्र एक मामूली ओहदा मिलने के कारण क्रोधित होकर त्याग पत्र दे दिया, जनता उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है| जनता जानती है की जिसके सामने संघ की एक न चली, विश्व हिंदू परिषद कुछ नहीं कर सका, जैश ए मोहम्मद और लश्करे तोइबा के आतंकी जिसका बाल भी बांका नहीं कर सके, तीस्ता सीतलवाड, मेधा पाटेकर और सोनिया माइनो की इतालवी ताकत भी जिस पर्वत खंड से टकरा टकरा कर अपने अस्तित्व की लघुता का बोध पा गए हों, वह यदि प्रधानमन्त्री बन गया तो चीन और पकिस्तान को भी हिन्दुस्तान के बारे में अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है|

मोदी की सोच अंतर्राष्ट्रीय है और वे भारत सरकार को अपनी विदेश नीति के सन्दर्भ में पहले ही चेता चुके है इसलिए जनता जानती है की मोदी के आगमन से भारत में नए घटनाक्रमों का सृजन होगा और अब जनता परिवर्तन चाहती है क्योंकि वह पगड़ी और टोपी की राजनीति से आजिज आ चुकी है|

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