मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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गहन निशा है, बुझे दीप हैं,
विषधर पांवों में डंसता है|
और पास ही महफ़िल सजती,
कविताओं से डर लगता है|
भूख बिलखते बच्चे माँ की छाती से जब भी लगते हैं|
किसी हरामी की आँखों में यौवन के सपने पलते हैं|
महफ़िल में गजलों का गाना, कानों में बम सा फटता है|
और पास ही महफ़िल सजती,
कविताओं से डर लगता है|
लम्पट अधरों ने मांत्रिक के अस्फुट अधरों को कब जाना?
मेरा सारा रोना, गाना, भैंस के आगे बीन बजाना|
संस्कृति की मातमपुर्सी पर देखो शहनाई बजता है|
और पास ही महफ़िल सजती,
कविताओं से डर लगता है|
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