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निरर्थक प्रलाप

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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’मेरा सब कुछ खो गया है|मेरा शैशव,मेरा बाल्य,मेरी तरुणाई और अब मेरी वृद्धावस्था भी मेरा साथ छोडना चाहती है|मैं मुर्दा नहीं हूँ क्योंकि मेरी साँसे चल रही है|थोडा देखना, नसें चल रहीं हैं की नहीं|अबे, देख मेरी धमनी रुक तो नहीं रही|तू हंस रहा है? लेकिन आज तेरी हसीं मुझे आनंदित नहीं कर रही|तू मेरी बेबसी का मजाक उड़ा रहा है|हे मेरे भगवान! मेरे मांसपेशियों में विद्युत सा बल क्यों भरता जा रहा है?मेरे अंग प्रत्यंग तड़फडाने लगे हैं|यह ठंडी हवा कैसी है?एकदम सर्द, और मेरे माथे पर पसीने की बूंदे?क्या मैं मर रहा हूँ?’’ उसका जिस्म एकाएक पत्थर हो गया|

उसके पास से एक साया रेंगता हुआ नजर आया|अखबार में एक बड़ी सी खबर निकली, “प्रधानमंत्री ने द्विपक्षीय संबंधों के एक नए युग का सूत्रपात किया|”एक लघु खबर निकली,” हिंदू आतंकवाद का सफाया करने को केन्द्र सरकार कटिबद्ध है|” बीच वाले पन्ने पर एक छोटी सी मगर  महत्वहीन खबर छपी, “हनुमान मंदिर का पुजारी सरकारी अस्पताल में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाया गया|’’

यह खबर आग की तरह फ़ैल गयी|शहर के सभी श्रीमंतों में अपने आपको उस उपेक्षित हनुमान मंदिर का सबसे बड़ा रहनुमा घोषित करने की होड लग गयी|पुजारी ने अपने जीते जी, अपने जिस नालायक बेटे को मंदिर से बाहर कर दिया था|आज वही मदिर का प्रधान पूजारी बन गया और अब उस मंदिर का वह गुप्त द्वार भी सबके लिए खोल दिया गया है जहां श्रद्धालुओं ने चन्दा एकत्रित कर  श्री राम,लक्ष्मण,जानकी की स्वर्ण मूर्तियां स्थापित की थी|आजकल लोग वहाँ चप्पल पहन कर जाने लगे हैं|

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