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सिँहनी जब फाड़ मस्तक-
हस्ति शोणित पान करती-
गरजती शार्दूल जननी,
विजय का हुंकार भरती।
सिँह- शावक आ लिपट तब
मातृ थन से-
दुग्ध का क्या पान करते?
या विजय की व्यंजना मेँ-
अनुसरण कर वीर माँ का-
छीन कर निज तीक्ष्ण नख से-
उदर का करके विदारण –
माँस खाते सीखते हैँ-
अभय हो वन मेँ विचरना।
और तुम तो मृत्यु देवी-
जगज्जननी कालिका के-
वीर्य रज से युक्त होकर-
भीत कापुरुषोँ की भाँति,
भूलकर गीता कथन को,
दीर्घ जीवन कामना ले,
शिश्न के आनंद मेँ-
नवगीत का निर्माण करते।
चरम है अश्लीलता का-
कवि तुम्हारे भाव मेँ अन्तर ही क्या
सामान्य जन से?
जो तुम्हे आदर्श के ऊँचे गगन मेँ –
भेदकर यह सौरमण्डल –
स्वर्ग का साम्राज्य देँवे।
शुभ घड़ी है।
यह निराशा की निशा है।
चरम पर बेरोजगारी।
समय है निर्माण का,
शव साधना करना पड़ेगा।
कौन कापालिक बनेगा?
इस पुराने राष्ट्र के मरघट मेँ बैठा –
जो उठा मृत रुढ़ियोँ का देह कर मेँ –
भावना चंदन सुवासित काष्ठ पर रख,
त्याग रुपी वेदिका की अग्नि लेकर,
विश्व मंगल कामना रुपी प्रदक्षिण
कर
जला देगा युगोँ से सड़ रही काया यहाँ पर।
विश्व सत्ता योनि से सम्बद्ध होकर,
अहं का नर माँस खाकर,
साधना की सुरा पीकर,
संकल्प से वश मीन करके,
खड्ग मुद्रा से अभय,
वैराग्य भैरवी चक्र ऊपर,
धर्म की बिखरी हुई सी-
अस्थियाँ एकत्र करके,
चेतना संजीवनी का –
मंत्र जापे-
लेखनी से।
<जय महाकाल, मनोज कुमार सिँह ‘मयंक’
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