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कहीँ तुम्हारा ग्रंथ जले और कहीँ फूँक दो तुम सिँहासन।
किससे जाकर कहेँ राजगद्दी पर बैठा भ्रष्ट दुःशासन॥
कागज के जलने से बढ़कर निन्दित रक्त प्रवाह नहीँ है?
उनको क्या बतलाये जिनको मानवता की चाह नहीँ है॥
माना ग्रंथ जलाना निन्दित किँतु तेरा अभिनन्दन क्योँ हो?
जब सब कुछ ही खण्डन लायक, फिर महिमा मण्डन ही क्योँ हो?
क्या हमको भी तक्षशिला और नालन्दा की याद नहीँ है?
अथवा अलक्षेन्द्र ग्रंथालय की कोई परवाह नहीँ है?
किँतु कहाँ से सीखा तुमने तेरा ग्रंथ नहीँ बतलाता।
जो खुद को पापी कहता है, वह क्योँकर हो पाप सिखाता॥
क्षमा,दया,करुणा ही हमको नत कर देती जीसस बन्दे।
किँतु बताओ हमेँ कहाँ से आग लगाना सीखा तुमने?
जिसने तेरी पोथी फूँकी वह पापी सचमुच पापी है।
लेकिन इस पर रक्त बहाने वाला तू भी अपराधी है।
मैँ भी अपराधी हूँ क्योँकि मैँने जो जाना समझा है।
बिना किसी भय पक्षपात के जनता के सम्मुख रक्खा है।ॐ
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