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जीवन

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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जीवन खट्टा है,मीठा है,फीका है,कड़वा,तीखा है।
यह कई रंग,यह धूप-छाँव,यह मुखर भी है,शर्मीला है।
यह हास्य-रुदन का आदि,अंत और मध्य बताता है नर को।
जलवाष्प,सलिल,हिम को,अणु को और संसृति के इक-इक कण को।
कुछ लोग जो आयेँ भेद खोल इसका रख देने दुनिया मेँ
वो चले गये तो बात गई।
फिर से दुनिया है नयी-नयी।
अब भी दुनिया मेँ दुःख ही दुःख,अब भी दुनिया मेँ दुखियारे।
जो कुरुक्षेत्र मेँ कही गयी।
फिर गई,गई वह बात गई।
फिर देश-जाति का बंधन है,माया का तांडव नर्तन है।
कभी अयस-श्रृंखला, रेशम है,कभी अट्टहास है,गर्जन है।
मुरलीधर की मुरली भूली,जब चक्रपाणि का चक्र चला।
चल हाँथ देख तू अब मेरा,बतला क्योँ राहु वक्र चला?
क्या मुक्त तभी हो पाऊँगा,तड़-तड़ जब धागे टूटेगेँ?
जब सब पौरुष थक जायेगा।
और यह जीवन ढल जायेगा।
अब पिया मिलन का पथ बोलो खुसरो आखिर किससे पूछेँ
अब कौन हमेँ समझायेगा?
जीवन का पथ दिखलायेगा?

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