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मैँ मृत्यु सिखाने आया हूँ

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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मैँ मृत्यु सिखाने आया हूँ, जिसको मरना हो आ जाये।
युगधर्म बताने आया हूँ, सूली चढ़ना हो आ जाये॥
हिँसा, प्रतिहिँसा और अहिँसा मेँ अन्तर क्या होता है?
तल, अतल, वितल, ऊपर, नीचे, बाहर, भीतर क्या होता है?
क्या होता है जब फूँक-ताप कर प्रियजन वापस आते हैँ?
दो बूँद ढलकती आँखोँ से फिर दुनिया मेँ रम जाते हैँ।

व्यापार बताने आया हूँ, जिसको लुटना हो आ जाये।
मैँ मृत्यु सिखाने आया हूँ, जिसको मरना हो आ जाये॥

ब्रम्हा के सर्जन और विष्णु के पालन से हटकर शाश्वत।
भीषण, कराल यह रुद्र-धर्म,काली-कंकाली का मरघट।
शोणित,मज्जा और माँस युक्त, नर देह, सुघड़, श्यामल, सुंदर।
वासनायुक्त शुक बैठा है,जिह्वा मेँ राम, कनक पिञ्जर।

झिँझोड़ जगाने आया हूँ, जिसको उठना हो आ जाये।
मैँ मृत्यु सिखाने आया हूँ, जिसको मरना हो आ जाये॥

वह लोक जहाँ अन्याय नहीँ,पाखण्ड नहीँ,छल-छद्म नहीँ।
जो अजर, अमर, चेतन, शाश्वत,होने वाला है भस्म नहीँ।
जो शुद्ध-बुद्ध,कैवल्य धाम, अन्यायी पर है वज्रपात।
जो न्यायी,धर्मात्मा,व्यापक, जो धीर,वीर,अज और उदात।
वह मोक्ष दिलाने आया हूँ, जिसको मिटना हो आ जाये।
मैँ मृत्यु सिखाने आया हूँ, जिसको मरना हो आ जाये॥

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