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आज की उपभोक्तावादी संस्कृति ने दृश्य और अदृश्य समस्त वस्तुओँ को बाजार मेँ बिकने वाले एक उत्पाद के रुप मेँ बदल दिया है।उच्चता और निम्नता का मापदंड व्यक्ति का शील,गुण,चरित्र और सदाचार नहीँ बल्कि उसका छल,पाखंड,धूर्तता और उसकी बाजार मेँ प्रेजेण्टिब्लिटि (प्रस्तुतिकरण) हो गयी है।सत्यम्,शिवम् और सुन्दरम् कि भावना से अनुप्राणित ‘वसुधैव-कुटुम्बकम्’ के आदर्श ने ग्लोबलाइजेशन अथवा वैश्वीकरण का अतिभौतिकतावादी लबादा ओढ़ लिया है। पछुआ के प्रचण्ड प्रवाह ने प्राच्य सभ्यता कि चूलेँ हिला दी है। नित्यानंद जैसे योग गुरुओँ ने एक दूसरे ही तरह के योग की व्याख्या करना प्रारंभ कर दिया है।प्राच्य ज्ञान के अथाह स्त्रोत समझे जाने वाले ज्योतिष,तंत्र,योग और आयुर्वेद भी विश्व बाजार मेँ एक आर्कषक उत्पाद के रुप मेँ परोसे जाने लगे हैँ।
विचारधारा के तीन वर्ग हैँ- पहला वर्ग यह मानने को तैयार ही नहीँ कि भारतीय ज्ञान नाम की भी कोइ चीज इस संसार मेँ होती है, यह वर्ग इसके समर्थन मे किसी तरह का तर्क स्वीकार ही नहीँ करता।दूसरा वर्ग आँख मूँद कर उन सभी बातोँ को स्वीकार कर लेता है जिसमेँ कहीँ से भी भारतीयता परिलक्षित होती हो और तीसरा वर्ग इन सब बातोँ से कोइ भी सरोकार नहीँ रखता। वह तो मार्केट का मुरीद है और अगर कोइ कायदे का मार्केटिँग गुरु मिल गया तो वह उसे आसानी से बरगला सकता है। मजे की बात यह है कि जनसंख्या मे इस तीसरे वर्ग का ही सबसे अधिक वितरण है।।
पुत्रैषणा,दारैषणा,वित्तैषणा,लोकैषणा और राज्यैषणा जैसी ऐषणाएँ समग्र मानवीय चेतना को रिमोट कण्ट्रोल की भाँति नियंत्रित करती हैँ और इसका लाभ उठाना आधुनिक ज्ञान से ओतप्रोत हमारे पुरातात्विक मार्केटिँग गुरु भलीभाँति जानते हैँ।इनलोगोँ ने ज्योतिष,तंत्र,आयुर्वेद,योग और दर्शन को सत्यनारायण भगवान की कथा बना दिया है जिसके न सुनने से साधु बनिया का सब कुछ खो जाता हो।
निःसंदेह योगगुरु रामदेव ने योग को लोकप्रिय बनाने मेँ अपना अमूल्य योगदान दिया और उनके इस अवदान का प्राच्य जगत सर्वदा ऋणी रहेगा किँतु अगर आसनोँ का ही नाम योग होता तो योग-सूत्रोँ के प्रणेता महर्षि पतंजलि को चार पादो मेँ योग-सूत्रोँ का प्रणयन न करना पड़ता और इसके लिए तो मात्र उनका एक ही सूत्र ‘स्थिर सुखमासनम्’ ही पर्याप्त होता और यदि प्राणायाम ही योग-सर्वस्व होता तो इसके लिये उनका ‘तस्मिन सति श्वास प्रश्वासयोर्गति विच्छेदः प्राणायामः’ कह देना ही पर्याप्त होता।
मैँ यहाँ बाबा रामदेव की बुराई नहीँ कर रहा वरन् योग के नाम पर पाँवर योगा,सेक्स योगा और ब्यूटी योगा जैसी कुत्सित अवधारणाओँ की भर्त्सना करना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य हैँ।महर्षि पतंजलि ने कभी सपने मेँ भी नहीँ सोचा होगा कि जिस योग के माध्यम से वे निष्प्राण मानवता मेँ ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’ की संजीवनी का संचार कर मानव को ‘मनुर्भव’ का शुभाषीस दे रहे हैँ, उनका वही योग चित्तवृत्तियोँ को स्वच्छंद करने का एक माध्यम बन जायेगा।
योग जैसे गूढ़ विषय का संयुक्त राज्य अमरिका मेँ प्रचार प्रसार देखकर जो महानुभाव अपने आपको भारतीय कहलाने मेँ गर्व का अनुभव करने लगे हैँ और अमरिका द्वारा आयातित आधुनिक छद्म योग को प्राच्य ज्ञान की भौतिकता पर विजय बताते नहीँ अघाते उन्हेँ यह नहीँ भूलना चाहिए कि अहिँसा योग का एक अनिवार्य अंग है और हिरोशिमा और नागासाकी पर बम बरसा कर अमरिका ने जिस निम्न श्रेणी की दानवता का परिचय दिया था वह विश्व इतिहास मेँ एक काला अध्याय है और उसके इस कृत्य के लिए योग का साधारण ज्ञान रखने वाला भी कभी क्षमा नहीँ करेगा फिर योगवेत्ताओँ की तो बात ही अलग हैँ।आज इन्हीँ शिश्नोदर परायणी अमरिकामुखी लोगोँ ने तंत्र को सेक्स का पर्यायवाची समझ लिया है।आयुर्वेद के नाम पर स्तम्भन शक्ति बढ़ाने वाले नुस्खोँ,तिला,तेल इत्यादि का बाजार गर्म है।कुल मिलाकर भारतीय ज्ञान विज्ञान की जितनी दुर्गति वर्तमान समय मेँ हो रही है,उतनी कभी नहीँ हुई।
भारत के विपरीत चीन ने अपने प्राचीन विरासत के महत्व को समझा और उसे सँभाल कर रखा।लोग-बाग मेँ एक कहावत मशहूर है ‘हिकमते चीन,हुज्जते जापान’।चीन ने इसे एक वास्तविकता बना दिया।हाँलाकि फेँगशुई और एक्यूप्रेशर भी बाजारवाद की आँधी से नहीँ बच पाये और वे भी मार्केट की ही धारा मेँ बह रहे हैँ किँतु न सिर्फ उनकी रफ्तार धीमी है वरन् वे इस प्रवाह मेँ भी अपने परम्परागत यिन यांग की फिलासफी को नहीँ भूलते।इसके विपरीत न सिर्फ हमारे प्रवाह की गति तीव्र है वरन् हम उपभोक्तावादी माँग के अनुरुप ढलने के लिये अपने परम्परागत मूल्योँ और दार्शनिक आधारोँ की भी तिलांजलि दे बैठे हैँ।
योग और आयुर्वेद दोनोँ के ही प्रणेता महर्षि पतंजलि को प्रणाम करते हुए एक श्ळोक मेँ कहा गया है,’योगेन चित्तस्य, पदेन वाचा,मलं शरीरस्य तु वैद्यकेन.योऽपां करोतु प्रवरंमुनीनां पतंजलिँ त्वां प्रणमामि नित्यं’।अर्थात् योग से चित्त,वैद्यकशास्त्र के द्वारा देहज मल और व्याकरण शास्त्र के माध्यम से वाणी कि शुद्धि करने वाले पतंजलि को हम सर्वदा प्रणाम करते हैँ।उपर्युक्त श्लोक मेँ योग का उद्देश्य चित्त की शुद्धि और आयुर्वेद का उद्देश्य शारीरिक मलोँ की शुद्धि करना बताया गया है और आज ये दोनोँ विद्याएं इनमेँ से किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नही कर पा रही हैँ।
तंत्र,ज्योतिष,आयुर्वेद और योग का अध्ययन करने पर यह बात सामने आती है कि इनका परस्पर एक ही दार्शनिक आधार है और इनमेँ कही कोइ अन्तर्विरोध नहीँ है बल्कि इनमे गजब का अन्योन्याश्रित संबंध है।जबकि बात इसके विपरीत प्रचारित की जाती है।
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